Tuesday, August 10, 2010

पूर्व प्रकाशित


कविता                  सच और झूठ

मुझसे पिता ने कहा


पिता को उनके पिता समझा गये होंगे


‘‘सत्य बोलना पुत्र,


सत्य की सदा विजय होती है।’’


तब कौन सा युग-धर्म


सिखा रहे थे पिता अपने बेटों को।


अब भी क्या वैसा हो होगा,


सत्य का प्रतिरूप?


जैसा कि दादा, परदादा


सिखाते रहे थे अपने बच्चों को,


और जैसा पिता समझाते रहे हमें।


कि सूर्य एक है


ऐसे ही सत्य है एक, शाश्वत।


सब बातें, सारी किताबें के


उलट - पुलट हो रहे हैं अर्थ,


कि ‘सत्य बोलना’ जुर्म सा हो गया हो


अब, जबकि,


तब क्या हम भी यही


सिखायेंगे बच्चों को?


क्या मजबूरी होती है पिताओं की


कि वे बच्चों को सिखाना चाहते हैं,


केवल सच, जबकि


आज बन गया है एक जुर्म


सच बोलना, सुनना या देखना।


झूठ है कि


सच बोलकर ही जी जा सकती है


खुशनुमा जिन्दगी।


आज जबकि हम देख रहे हैं,


सच के मुँह पर है ताला,


और झूठ रहा है खिलखिला,


सच्चों को जीने की देता है शिक्षा


तब हम क्या सिखायेंगे बच्चों को।


जबकि बच्चे जन्मते ही


हो जाते हैं सयाने।


कि पकड़ सकते हैं


मुंह पर ही हमारा झूठ।                डॉ. नवीन चन्द्र लोहनी

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