Saturday, July 24, 2010

क्या होगा पुतला जलाने भर से

आपको याद है कि कोई कसाव भी है भारत सरकार जिसकी सुरक्षा पर करोड़ों लुटा चुकी है और देश  के किसी भी महत्वपूर्ण व्यक्ति से उसकी सुरक्षा की चिन्ता सरकार को अधिक है जिसकी अब पाकिस्तान वास्तव में चिन्ता कर रहा है आखिर क्या पाकिस्तानी हुक्मरानों को याद आ ही गई कि उनके गुर्गों  में कसाव अभी जिन्दा है,  टी० वी ० से लेकर समाचार पत्र मंत्री से लेकर सन्तरी  तक सब  चिन्तित आखिर कब तक होगा यहाँ सब  कब तक ..................................................   
                      क्या होगा पुतला जलाने भर से
          पिछले साल होली के अवसर पर देश  की आथिर्क राजधानी मुम्बई के हमले के आरोपी कसाव का पुतला जलाया गया॔ हिन्दी के टेलिविजन चैनलों पर यह खबर ऎसे परोसी गई माना कि अब कसाव या उस जैसे सारे आतंकवादियों को खत्म कर दिया गया हो और कसाव नामक यह अंतिम आतंकवादी था उसको भी आज खत्म कर दिया गया है । इसके साथ ही यह भी कहा गया कि मुम्बई के आतंकवाद विरोध का यह अपना तरीका है । कसाव का पुतला बम्बई में जलाया गया, आलेख के प्रकाशित  होने तक देश के अन्य कोनों से भी ऎसी घटना खबर आ जाए, परन्तु कसाव के पुतले या किसी भी पुतले के दहन से वास्तव में कुछ भी बदलता है । हमारा यह निरीह आक्रोश  ही तो है जब आम आदमी अपने गुस्से का इजहार किसी और शक्ल में नहीं कर पाता तो ऎसे तरीकों से अपने को अभिव्यक्त करता है अगर इसमें इसी प्रकार का आक्रोश  ही हो तो भी हमारा काम क्या इतने भर से सम्पन्न हो जाने वाला है ।
                    भारतीय राजनैतिक परिदृय में पुतला जलाना एक राजनैतिक क्रियाकर्म  सा हो गया है । यह सब कई बार अपना आक्रोश  अभिव्यक्त करने के लिए होता है परन्तु अब तो कई बार यह सब इसलिए भी होता है ताकि उस व्यक्ति या संगठन को इस बहाने अपना प्रचार करने का आसान तरीका मिल जाता है । यह तरीका अब केवल राजनीतिक दलों तक ही नहीं है अपितु कई कथित सामाजिक संगठन, जातीय, धार्मिक विद्यार्थी  संगठन भी इसी तरह का प्रचार का टोटका अपनाने में लगे हैं ।
                  जो भी हो, कसाव जैसे आतंकवादियों के प्रति अपने गुस्से का इजहार करने का एक तरीका जनसामान्य ने अपनाया यह घटना अपने आप में एक संकेत तो देती ही है कि हम किस प्रकार आतंक से पीडि़त हैं और पुतला जलाकर सांकेतिक तौर पर ही सही अपने गुस्से की अभिव्यक्ति कर रहे हैं । पर सवाल यह भी है कि हमारे देश  में सत्ता पर काबिज लोग भी क्या जनमानस की इस व्यथा से परिचित हैं, क्या विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका में इन घटनाओं का कोई असर होता है । अगर वास्तव में होता है तो क्या तब भी यह संभव है कि संसद में हमले के आरोपी को सजा की घोषणा हो जाने के बाद भी पत्रवली इतने लम्बे समय से किस कारण अब तक देश  के सवोर्च्च पदधारी के पास पड़ी हुई है । क्या संकेत हैं इस सबके कि हो सकता है एक दिन सिद्ध हो जाएगा कि कसाव देश  की सुरक्षा में सैंध लगाकर तीन दिन तक पूरे विव में भारत की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था की पोलपट`टी खोलने बाले दल का सदस्य था ।
            जनधन की हानि के अलावा देश  पर आक्रमण करने वाले आतंकियों के दल के एक सदस्य और अब तक पकडे़ जा सके एकमात्र् जीवित आतंकी के प्रति हमारी सरकार का आज क्या रवैया है, उसके प्रति देश  के कानून में क्या कोई नरमी बरतने के पैंच मौजूद हैं, नही तो इस आतंकी के कबूलनामे को विवविरादरी के सम्मुख रखकर उसको अकल्पनीय सजा देकर इस दिशा   में कदम बढ़ाने की ओर कोशिश  करने वाले भीतरी तथा बाहरी आतंकियों के लिए सबक देने का हमारा प्रयास और तेज तथा कारगर नहीं होना चाहिए । पाकिस्तान के हुक्मरान, सेना तथा वहॉं के आतंकीयों की मिली जुली कोशश की स्वीकृति चाहे मुशरर्फ भारत में आकर कर गए हैं यही नहीं पूर्व प्रधान मंत्री  बेनजीर भुट`टो अपनी आत्मकथा में मेरी आपबीती में इस तथ्य को स्वीकार कर चुकी हैं कि उनकी सेना के सेनाध्यक्ष स्तर के लोग कमीर में एक साथ एक लाख तक आतंकियों को भेजकर हमले की तैयारी में रहे हैं और अब जबकि खुले और साफ सबूत हमारे पास हैं फिर कार्यवाही में देरी का मतलब ही क्या है । अब तो हालात यह कि कसाव तथा उस जैसे अन्य आतंकवादियों की सुरक्षा, देखरेख तथा उसको जीवित रचाने की व्यवस्था में जितना धन, सुरक्षा ऎजेंसियों का जितना समय तथा जेलों में विशेष  सुरक्षा बैंरको तथा उनकी कोटर् में पेशी आदि पर जितना खर्च  हो रहा है संभवतः वह खर्च  देश  के किसी बड़े राज्य की सरकार के द्वारा कुल व्यय से भी अधिक होगा । अबू सलेम, बबलू श्रीवास्तव जैसे लोग जेल से ही चुनाव लड़ने का ऎलान करते हैं तो कई संगीन मामलों में आरोपित तथा निचली अदालतों से सजा पाए अपराधी बड़ी अदालतों में मुकदमें लड़ते हुए मंत्री  पद पर तक काबिज हैं । ऎसे में लोकतंत्र् का संदेश  ही क्या है ।  
               कसाब के पुतले के दहन से अब काम चलने वाला है नहीं क्योंकि  इतने वर्षों  से परंपरा के पालन के नाम पर हो रहे दिखावे के कारण कितने ही बड़े अपराधी आराम से घूम रहे हैं और वे कानून की धज्जियॉं उड़ाने के बाद देश  के लिए कानून बनाने वाली विधायिका के हिस्से बन रहे हैं फिर देश  की सवोर्च्च जन  पंचायत संसद  में भदेश   दृश्य  मंचित हो रहे हैं । हमारी कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के हिस्से से भी ऎसे मामलों में कोई तेजी नहीं आ रही है जिससे आम आदमी को लगे कि वह वास्वव में लोकतांत्र्कि गणराज्य का हिस्सा है । 
                हिंसा का जो नंगा रूप मुम्बई में २६/११ को हुआ उसके बाद में किस तरह के सबूत की आवयकता है, परन्तु हम देश  के कानून के लचीले स्वरूप में कब परिवतर्न लाऎंगे जिससे ऎसे मामलों में या इस जैसे मामलों में देश  की जनता को लगे कि न्याय हो रहा है । न्याय होना और न्याय होते दिखाई देना दोनों ही ऎसे मामलों में जरूरी है । अब पता चलता है कि राजीव गॉंधी की हत्या के मामले में सजा पाए, संसद काण्ड में सजा पाए आतंकियों को भी अभी सजा मिली नहीं है तो आम आदमी किस दिन तक इंतजार करे ऎसे में होलिका के साथ कसाव का पुतला जलाकर ही सही उसने अपने गुस्से का इजहार भी कर दिया तथा अपनी ओर से उसकी सजा भी बता दी, परन्तु वास्तव में कसाव या उस जैसे अन्य आतंकवादियों सजा मिलेगी भी कि नहीं और वह मिलेगी भी तो कब यह भविष्य  के गर्त  में बंद है । लेकिन एक बात साफ है कि अब आम आदमी राजनीतिक दलों की इस तरह की पैंतरेबाजी से उब चुका है कि वे आतंकवाद के विरोध में हैं परन्तु उसे सख्ती से कुचलने के प्रति कानून बनाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है ।            राजनीतिक दल शोर  तो काफी करते हैं कि अपराधियों को राजनीति में प्रवेश  न हो परन्तु हर दल के अपने अपराधियों के लिए अलग मानदण्ड हैं और दूसरे दले के अपराधियों के लिए अलग मानदण्ड हैं। यही नहीं कल तक अपराधी विरोधी दल में था तो अपराधी था और अपने दल में आते ही वह महात्मा घोषित जाता है । संगीनों के साए में, अपराधियों के साथ सरेआम घूम  रहे तथा भ्रटाचार के आरोपों से घिरे लोग हमारे तंत्र् में लोकनायक होने तथा न्याय, अंिहंसा तथा ईमानदारी का पाठ पढ़ने का उपदेश दे रहे हैं लोकतंत्र् का इससे भद`दा मजाक और क्या हो सकता है । ऎसे में लोकतंत्र् में ताकतवर अपराधियों से धिरे जनसमूह को आतंकवादियों के या किसी अन्य अपराधी का पुतला जलाने मात्र् से क्या होगा । हिन्दी फिल्मों में भी ऎसा कई बार होता है जब हमारे अभिनेता अकेले होने के बावजूद कई कई खलनायकों को मार देते हैं हम सिनेमा घरों  तथा टेलिविजन पर यह देखते हैं और आनंदित होते हैं, परन्तु वास्तविक दुनिया में आते ही फिर हम वही देख रहे हैं जो देखना भी नहीं चाहते । 
                हमारे लोकतंत्र् की इस असलियत को हम शायद  अभी स्वीकार नहीं कर पा रहे है कि अब अपराधी तथा आतंकवादी वोट बैंक को प्रभावित करने तथा कराने वाले असरकारी तत्व है जो अब हमारे राजनीतिक दलों के लिए प्रभावकारी ताकत बनते जा रहे हैं ऎसे में यही सोचना है कि आखिर हमारे राजनीतिक आकाओं को कब यह पैगाम मिलेगा कि जनता कसाव का पुतला जलाकर यही सन्देश देना चाहती है कि वे अपराधियों तथा आतंकवादियों को वोट बैंक को प्रभावित करने वाली ताकत के रूप में देखना बंद करें ।
प्रो नवीन चन्द्र लोहनी

Wednesday, July 21, 2010

मीडिया की हिन्दी भी पाठ्यक्रम का हिस्सा बने

हिन्दी वालों के बीच लगातार एक चर्चा चल रही है कि हिन्दी पाठ्यक्रमों में आधार पाठ्यक्रम का चयन किस प्रकार किया जाए? मैं पाठ्यक्रमों में चयन के लिए मीडिया में प्रसारित नए सीरियलों, वृत्त चित्रों, फिल्मों, विज्ञापनों सहित तमाम फीचरों को पाठ्यक्रम का एक आधार बनाने की पैरवी करता हूँ। मेरा सोचना है कि भविष्य में अगर हिन्दी के विकास के लिए कोई चीज जिम्मेदार होगी तो उसमें सर्वाधिक वे चयन होंगे जो वर्तमान हिन्दी के स्वरूप को उद्घाटित करने वाले होंगे जाहिर है कि इसमें सर्वाधिक, चर्चित विकासक्रम, संचारमाध्यमों द्वारा अपनाई गई हिन्दी का ही है जिसमें पारम्परिक हिन्दी बरक्स एक ऐसी हिन्दी खड़ी हो गई है जो आज अपने आप में अधिक प्रभावशाली, आक्रामक और सुलभ तरीके से लोगों के बीच पहुँच रही है। ऐसी हिन्दी से मेरा तात्पर्य है जो संस्कृतनिष्ठ बोझिलता से बाहर है और जिसमें उर्दू उच्चारण भंगिमा या अंग्रेजी की उच्चारण भंगिमा का अतिक्रमण होते हुए बंगला, मराठी, पंजाबी का हिन्दीकरण करते हुए एक अलग तरह की हिन्दी हमारे बीच आ रही है। मैं ऐसी हिन्दी का पक्षधर हूँ जो अपनी वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए किसी भी भाषा की शब्दावली को आत्मसात कर सके और उस परिवर्तन को हिन्दी की प्रवृत्ति के साथ तालमेल बिठाते हुए प्रयुक्त किया जाए कि वह भविष्य में हमें कभी भी बेगानी न लगे।

ऐसी हिन्दी खोजने के लिए आपको आज के संचार माध्यमों जाना पडेगा जहां पर हिन्दी के तरह-तरह के विकसित रूप प्रकट हो रहे है। ब्लॉग की दुनियां ने हिन्दी को एक नया आकार प्रकार दिया जो किंचित टेलीविजन माध्यमों और प्रिंट माध्यमों से आगे निकल रही है। अजीबोगरीब नामों से निकल रही कई पत्रिकाओं में व्यक्ति अपनी कुंठा से लेकर सदिच्छा तक लोगों तक निर्विरोध पहुँचा रहे हैं। जाहिर है उसका पक्ष-विपक्ष अभी तय होना बाकी है। लेकिन किसी भी भाषा के विकास के लिए उसके अपने विकास के तमाम रूपों को आगे आना जरूरी है। अर्थात् जब भी हम यह कहते हैं कि हमारी भाषा के विकास के नए रूपों को हम पहचानना चाहते है तो हमें किताबों की दुनियां से बाहर आकर एक ऐसी दुनियां भी अब आकर्षित कर रही है जो स्क्रीन पर है, जो जबान पर हैं और जिसका प्रयोग आमोखास बेखटके कर रहे हैं। इसलिए अगर हम यह देखना चाहते कि हिन्दी का एकदम नया चेहरा क्या है तो हमें माध्यमों के इन नए रूप से रूबरू होना एकदम जरूरी है।

मेरा सोचना है कि अगर भविष्य में हिन्दी पाठ्यक्रमों के विकास पर हम बात करें तो हम पाठ्यक्रमों में इस इन्टरनेट के ब्लॉग, टवीटर और फैस बुक पर आए हिन्दी रूप को ही नहीं एसएमएस की दुनियां में चल रही हिन्दी की एक आवाजाही को भी शामिल करें। जाहिर है ये सारे रूप आज की हिन्दी के रूप है। इसी प्रकार अगर टेलीविजन माध्यमों को देखें तो एक-एक चैनल पर आ रही हिन्दी आज उसके जीवन्त रूप को बनाए हुए है। वह हिन्दी जो किसी साहित्यिक कार्यक्रम में नहीं बोली गई जिसका वाचन कोई साहित्यकार या हिन्दी का भाषाविद् नहीं कर रहा है या जिस रचनाकार को पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं माना गया ऐसा सब कुछ हिन्दी के इस नए बाजार में, बाजारी शब्दावली में कहे हिन्दी की नई मंडी में मौजूद है। वह दूर लेह लद्दाख अरूणाचल कन्याकुमारी अण्डमान निकोबार जम्मू पंजाब में बैठा हुआ हिन्दी का प्रयोग कर्त्ता है जिसका मातृभाषा के रूप में हिन्दी से कोई सरोकार नहीं रहा और यह भी हो सकता है कि एक स्तर तक वह हिन्दी पाठ्यक्रम का विद्यार्थी न रहा हो किन्तु हिन्दी फिल्मों, गीतों, समाचार चैनलों से परिचित होते ये चेहरे अब हिन्दी के नए उपभोगकर्ता चेहरे है तो क्या हम भविष्य की हिन्दी में इनके द्वारा प्रयुक्त की जा रही हिन्दी की भारतीय छवि को शामिल नहीं करेंगे। आगे बात करें तो दूर मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, गयाना, बर्मा, नार्वे सहित अन्य देशों में गए भारतीयों की बात करे जो कभी भारतीय मजदूर के रूप में वहां गए थे और आज भी हिन्दी प्रयोग किंचित बदलाव के साथ उनकी नई पीढ़ियाँ कर रही है या फिर वे टेक्नोक्रेट चिकित्सक और व्यवसायी जो विदेशों में रहकर हिन्दी के नए प्रयोगकर्ता बने है और जिनके बीच भारतीय भाषाओं की सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी अपना नया रूप ग्रहण कर रही है। मैं समझता हूँ हिन्दी के इन नए प्रयोगकर्ताओं पर और नई हिन्दी के प्रयोगकर्ताओं पर भी अब हिन्दी का भविष्य निर्भर है। इसलिए अगर हम सोचते है कि हिन्दी में नए बदलावों को आत्मसात करने और लागू करने की आवश्यकता है तो हिन्दी के इस नए प्रयोगकर्ता वर्ग को जानना, समझना, पहचानना पड़ेगा और उनकी हिन्दी को अपनी हिन्दी कहकर हिन्दी प्रयोग के इस नए परिप्रेक्ष्य को समझना भी पड़ेगा।

मेरा प्रस्ताव है कि हिन्दी पाठ्यक्रमों में टेलीविजन सीरियल, फिल्मों, वृत्त चित्रों, फीचरों, विविध समाचार विश्लेषण से जुड़े कार्यक्रमों तथा समाचार चैनलों में प्रसारित बुलेटिनों की हिन्दी को भी जोड़ना चाहिए। अगर हम हिन्दी में यह सब जोड़ते है तो हिन्दी बड़ी होती है और हिन्दी प्रयोगकर्ता के रूप में जो भी व्यक्ति हिन्दी अपनाने की कोशिश करता है वह हिन्दी का सिपहसलार बनकर उसके प्रयोग को बढ़ावा देता है। दूसरी तरफ नए माध्यमों में आ रही हिन्दी को भी उसी प्रकार अपनाने की आवश्यकता है। इन्टरनेट समाचार पत्रिकाओं से लेकर इन्टरनेट पर उपलब्ध हिन्दी की पत्रिकाओं और ब्लॉगों में हिन्दी का एक व्यापक संसार तैयार हो गया है इनमें वे पत्रिकाएं भी है जिन्होंने हिन्दी के परम्परागत साहित्य को आधार बनाकर अपना रूप निर्धारित किया है और वे भी अधुनातन शोध और ज्ञान की अधुनातन शाखाओं को अपने आधार सामग्री के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। जाहिर है ये सब हिन्दी के नए हितैषी है। कम्प्यूटर की दोस्ती के चलते करोड़ों पेज आज नेट पर उपलब्ध हैं तो क्या भविष्य में अगर हम हिन्दी पाठ्यक्रमों को निर्धारित करते है तो उनसे हिन्दी का लगाव बढ़ाने के लिए और उनके हिन्दी के प्रति प्रेम को बनाए रखने के लिए उनसे हिन्दी के नए पाठक वर्ग को जोड़ने का अपना कर्त्तव्य पूरा करना हमारी जिम्मेदारी नहीं है? अगर है तो हिन्दी के भविष्य के आधार पाठ्यक्रम चाहे वह स्कूल के स्तर के हो अथवा स्नातक और उच्चतर स्तर के लिए हिन्दी प्रयोग के इस नए क्षेत्र को भी हिन्दी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना होगा।

Tuesday, July 20, 2010

राष्ट्रमण्डल खेलों में विज्ञापनों/होर्डिंग्स/सरकारी प्रपत्रों में हिंदी

राजभाषा समर्थन समिति की अपील
(भारत में हिन्दी प्रयोग लागू कराने हेतु एकजुट लोगों की संस्था)



विषय: ‘‘राष्ट्रमण्डल खेलों में विज्ञापनों/होर्डिंग्स/सरकारी प्रपत्रों तथा आयोजक संस्थाओं द्वारा अनिवार्यतः हिन्दी प्रयोग किए जाने के संबंध में।

हम सब जानते हैं कि हिन्दी भारत की राजभाषा है और राष्ट्रमण्डल खेलों के आयोजन स्थल के आस-पास प्रमुखता से बोली जाने वाली भाषा है। अतः हमारी समिति मांग करती है कि ‘‘राष्ट्रमण्डल खेलों में हिन्दी भाषा का प्रयोग विज्ञापनों/होर्डिंग्स/सरकारी प्रपत्रों तथा आयोजक संस्थाओं द्वारा अनिवार्यतः किया जाए, जिससे देश की गरिमा का आभास दुनियाँ को हो।’’ अपने देश में ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने के साथ ही हर क्षेत्र में हिन्दी के आने से हम अपने विकास की प्रक्रिया को कई गुना आगे बढ़ा सकते हैं और हिन्दी प्रयोग भारत को उसकी अस्मिता से जोड़ता है।

उल्लेखनीय है कि न्यूयार्क में संपन्न आठवें अन्तरराष्ट्रीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सुदृढ़ करने तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने का अभियान प्रमुखता से लिया गया था । यह अवसर है कि हम उस विशिष्ट अवसर पर लिए गए संकल्प को लागू कराएँ।

हमें याद रखना होगा कि हिन्दी का प्रयोग तथा उसके विकास के लिए हिन्दी भाषी लोगों के साथ-साथ कई अहिन्दी भाषी लोगों ने भी कार्य किया है जिनके कारण आज हिन्दी राष्ट्रभाषा ही नहीं अपितु अन्तरराष्ट्रीय भाषा भी है। हिन्दी भारत की राजभाषा है, अतः हमारा मानना है कि:-

1. जब चीन में ओलंपिक खेलों के दौरान चीनी भाषा का प्रयोग हो सकता है तो भारत में आयोजित खेलों की नियमावली और होर्डिंग्स, सूचनाओं का आदान-प्रदान, प्रसारण तथा सरकारी एवं आयोजक संस्थाओं के प्रपत्रों का लेखन हिन्दी में क्यों नहीं हो सकता।

2. आयोजन में आने वाले गैर हिन्दी भाषी खिलाड़ियों और प्रतिनिधियों को अनुवादक उपलब्ध कराए जा सकते हैं। जैसा कि प्रायः हर अन्तरराष्ट्रीय आयोजन में अन्य भाषा-भाषी लोग करते हैं।

3. राष्ट्रमण्डल खेलों में हिन्दी के प्रयोग द्वारा हम भारत की छवि को पूरी दुनियाँ के सामने मजबूती के साथ स्थापित कर सकते हैं।

4. यदि हम राष्ट्रमण्डल खेलों में हिंदी प्रयोग करते हैं तो अनुवादकों की आवश्यकता पड़ेगी। इससे अनुवादकों को रोजगार प्राप्त होगा।

5. राष्ट्रमण्डल खेल हिन्दी भाषा के लिए बड़ी संभावनाओं को खोल सकते हैं, अगर हम हिंदी का इन खेलों के दौरान अधिक से अधिक प्रयोग करेंगे। इससे विदेशी लोगांे का भी हिन्दी के प्रति आकर्षण बढ़ेगा तथा इससे हिंदी के शिक्षण, पठन-पाठन की विदेशों में भी संभावनाएं बढ़ंेगी।

6. अनुच्छेद 344 के अनुसार राष्ट्रपति हिंदी भाषा की बेहतरी के लिए भाषा आयोग का गठन करेंगे। राष्ट्रमण्डल खेल भारत में हो रहे हैं, परन्तु हिन्दी भाषा को संवर्धित करने के लिए संविधान में दी गई भाषा संबंधी व्यवस्था का पालन नहीं हो रहा है, ऐसे में जरूरी है कि जन जागृति द्वारा प्रबुद्ध नागरिक राष्ट्रमण्डल खेलों में हिन्दी के प्रयोग को लेकर सरकार का ध्यान आकर्षित करें।

7. राष्ट्रमण्डल खेलों में हिन्दी के प्रयोग द्वारा हम उस रूढ़ मानसिकता पर भी चोट कर सकते हैं जो अंग्रेजी के प्रयोग द्वारा निज विशिष्टता सिद्ध करती रही है, यह हिंदी के भूगोल और मानसिकता को परिवर्तित करने का अवसर भी है।

आशा है आप राजभाषा प्रयोग के इस क्रान्तिकारी अभियान को परिणाम तक पहुँचाने के लिए निर्णायक पहल करेंगे। राजभाषा समर्थन समिति आपका इस अभियान में मार्गदर्शन और सहयोग चाहती है। कृपया अपने स्तर से इस आयोजन से जुड़े हुए सरकारी विभागों एवं संस्थाओं से भी आग्रह करने की कृपा करें और इसे जन अभियान बनाकर मीडिया के माध्यम से भी लोगों तक पहुँचाने का प्रयास करें।

द्वारा प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी एवं समस्त साथी, राजभाषा समर्थन समिति,
हिन्दी विभाग, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ (उ0 प्र0) मो.नं. 09412207200/09412885983/9758917725/9258040773/9897256278