पहाड़ की सुबह
कुनमुनाती धूप
पहाड़ों से घाटियों तक
छितर-छितर आयी है।
रात भर कोहरे से
डरा सहमा पहाड़
बहाने लगा है आंसू।
कल की सुबह की तरह
डैने फैलाये पंछी
उड़ने लगे हैं फिर।
खांसता-खखरता सूरज
फिर कल की-सी प्रचंड दुपहरी की
दिल देगा याद
अभी सुबह ही है
और लोग घरों के अन्दर
कल के घाव धो-पोंछ रहे हैं।
जिद्दी रात
धूप/सुबह-सुबह बीन लेती है
शरारती रात के फैलाये सफेद मोती
पर जिद्दी रात
सुबह से पहले ही
हर रोज
‘फिर खोल देती है
लड़ी मोतियों की’
पहाड़
धुएं की सफेद / मटमैली
चादरें लपेट / बूढ़ा पहाड़
सफेद बालों के बीच
अपना रोता कलपता चेहरा
खोजता है।
दुःख की बरसात / हो गयी है शुरू
और चौतरफा उग आये है
नये-नये नाले।
नवीन चन्द्र लोहनी