Monday, August 5, 2013

देवताओं से साक्षात्कार

देवताओं से साक्षात्कार

आओ कि देवताओं से साक्षात्कार करते हैं, पूछते हैं उनसे 
कि किस तरह रहते हैं इतनी उॅंचाई पर हमसे दूर रहकर 
हमारी आपदाओें पर हंसते हुए 
आओ देखें कि किस तरह उनका कटता है 
दूसरों की विपत्तियों पर हंसते हुए उनका दिन 
कैसे गुजरती हैं उनकी रातें ।

हमारी अन्धकार भरी दुनिया से दूर , पर सूरज के इतने समीप रहते हुए
कैसे-कैसे सपने देखते हैं ये देवता 
कि आओ
नजदीक से देखते हैं इन्हैं
देखते हैं कैसे स्कूलों में पढ़ा-लिखा इन्होंने और
कैसे स्कूल हैं इनके जहाँ पढ़ रहे हैं इनके बच्चे
और यह भी कि देवता क्या सिखा रहे हैं अपने मासूम बच्चों को
और देखें कैसे गोरे, काले विचारों और रूपों के बन रहे हैं उनके बच्चे
अपने अलावा और दीन-दुनिया की कैसी समझ है उनकी
अपने से बाकी लोगों और उनके बच्चों के बारे में ।

और यह भी कि क्या उनको
अपने अस्तित्व की गलतफहमी अभी भी है
या उनको या उनको पता चल चुका है कि
उनका अस्तित्व अब संकट में है और
कोई वकील या न्यायालय कह सकता है उनके बारे में
कि वे कभी किसी घर में पैदा हुए थे या बेघर ही रहे सदा
या कि उनको अपना अस्तित्व बचाने के लिए जाना होगा न्यायालय के पास
और अपने तथा अपने पिता की वल्दियत के सबूत ठीक-ठीक लेकर ।

आओ देखो, किस तरह गढ़ी
जाती हैं स्वर्ग के तोरण द्वार की उॅंचाई
जहाँ आमोखास अपनी औकात के अनुसार ही पाते हैं प्रवेश
बाकी को उनका कोई सिपाही ही बता देता है बाहर का रास्ता।

आओ पता करें देवताओं से कि
उन्होंने बनाया कि नहीं अपना कोई नया संविधान
या वे पुराने संविधान से ही चला रहे हैं काम
और दीन दुनिया को समझ और हाँक रहे हैं पुराने कानूनों से ।
और इस तरह, किसी तरह ही चला रहे हैं अपना काम
आओ पता करें देवताओं से उन्होंने बंद किया कि नहीं
अपने अधीनस्थ देवताओं का शोषण बंद
या या उन की पहचानों पर आयद हो रहीं है
अभी भी उनकी बेतरतीब सी कार्यविभाजन नीति ।

आओ आग और पानी के देवता से इन, उन से, सबसे
सबसे पता करते हैं कि उनको पता है कि नहीं अपनी असलियत
कि उनके अस़्त्र-शस्त्र अब हो चुके पुराने
और उनके नए रिसर्च में भी कोई चमत्कार नहीं रहा ।

आओ देखें देवताओं के पुराने गुप्तचर भी
पुरानी चर परंपरा से ही चल रहे हैं या कि
पीछे हैं बहुत हमारे आबाओं-बाबाओं से
वक्ताओं से भक्तों से
जो दोहन कर रहे हैं उसी देवता के लोक का ।
तो आओ चलना ही होगा देवताओं के लोक में
यह जानने के लिए कि देवता कैसे कैसे चला रहे हैं
उतनी बिगड़ी व्यवस्था से अपना काम ।

आओ बताए उन्हें कि मनुष्य अब बढ़ गया है काफी आगे
और यहीं इसी दुनिया से पता कर ले रहा है उनके लोक की हलचल और खलबली
और देवता तुम्हारे औजारों, आविष्कारों में लग गया है जंक
और तुम्हारे नाम पर वसूली करने बालों की पौ बारह हो रही है।

Thursday, July 25, 2013

प्रवेश प्रारम्भ


हिंदी विभाग में इस वर्ष के प्रवेश प्रारम्भ हो रहे हैं, 

शिक्षण सत्र २०१३-१४ आप सबको शुभ हो 

Wednesday, December 7, 2011

अनुशासन हीन रहकर देश का गौरव बढ़ाएं


व्यंग्य      
     

नवीन चन्द्र लोहनी
        
जब कोई व्यक्ति लगातार  अनुशासन  तोड़ता है तो उसे बड़े होने, शक्तिमान होने साधन सम्पन्न  होने का आभास मिलता है। वह क्या आदमी जो बड़ा हो और   अनुशासन  भी न तोड़े। अब कई सांसदों ने पालाबदल लिया । पार्टी व्हिप को ठेंगा दिखाया । तब पता चला कि वे सब भी बड़े हैं । उनके भरोसे पार्टी के बडे़ दादा संसद में धोंसिया रहे थे । उन्होंने दादा लोगों की हवा निकाल दी । बाद में बड़े भोलेपन से कह रहे थे कि उन्हैं पार्टी  अनुशासन का  पता  नहीं  था  .
  क्या जमाना था जब टीचर कक्षा में होता था, गुरू जी के साथ-साथ चेले चेलियां तथागत भावों से उनकी बात मानते चलते लगता था मुर्दों की सभा हो या कि सारे रोबोट हों  ये भी कौन सी बात हुई कि कि गुरू जैसे हिले वैसे ही चेले हिले, जैसे गुरू चले वैसे चेले चले, जैसा गुरू ने कहा वैसा ही चेले, चेलियों ने किया । भला यह कौन सी जीव श ली हुई, आखिर वह चेला क्या जो गुरू की राह चले इसलिए कहा गया चेला वही जो गुरू से आगे निकल जाए या कि गुरू को लंगड़ी देकर आगे चला जाए ।
कुछ लोग गुरू चेलों की इस हालत पर खुश  होते हैं जाहिर है दूसरों को परेशन देख खुश  होने वालों की इस देश  में कमी नहीं है। पर खुश  होना क्या अंधों अंधे ठेलिया दोनों कूप परंत  वाली  बात जो कम से कम होनी ही चाहिए । देश  के कुआँ  खोदने वाले विभागों का भी उपयोग हो जाएगा और हमारे ज्ञान की परख भी । सो अच्छे गुरू चेले वह भी कहे जा सकते हैं जो या तो खुद कुए में गिर जाएँ  या ठेल-ठाल प्रतियोगिता संपन्न करते हुए एक साथ लुढ़क जाए। आखिर अंधे गुरू के अंधे चेले दोनों जैसे मिलते रहेंगे तभी गुरू परंपरा की दुहाई दी जा सकेगी । मेरा एक सुझाव यह भी है ऐसे लोगों को जो उपर कही गई परंपरा में आगे न पाए उन्हें   दण्डित करना चाहिए।
 असल में कक्षा तो वह है जब गुरू राम रहें तो चेला श्याम -श्याम  कहे । चेला वही जो गुरू से आगे चले । आगे चले ही नहीं गुरू को भी ठेले । जब गुरू पढ़ाने की चेष्टा करे तो चेला उसका मुखौटा बना तो ज्यादा अच्छा होगा । इससे पाठ के साथ चित्र कला का विकास होगा । गुरू जब गंभीर होकर पढ़ाए और आप उसे हंसाने का प्रयास करें तो इससे व्यंग्य तथा हास्य के साथ अभिनय कला का विकास होगा। गुरू जब लिखने को कहें और न लिखने पर बहस करें और जब व्याख्यान सुनने को कहें तो आप नोट्स नोट बनाने को कहें इससे वकृत्व कला का विकास होगा । संघर्ष का सिद्धान्त आखिर मार्क्स  यू ही नहीं सुझा गये । संघर्ष का मंत्र आखिर कितना प्रभावी होता है इसका भी पता चलेगा । इसका प्रतिफल हमें मिलना ही चाहिए।
देश  के अधिकारी कर्मचारियों के भरोसे छोड़ हमारे नेता अपने धंधों में लिप्त रहते हैं। चारा से लेकर कफन घोटाले करने के बाद भी उनका देश  में योगदान खत्म नहीं होता तो हमारे अधिकारी, कर्मचारी भी अपना योगदान देते हैं । 10 बजे के कार्यालय में 11 बजे आकर तदंतर गप, बहस, लंच, चाय और वापसी का क्रियाकर्म पूरा कर वे भी अनुशासन  हीनता का विकास करते हैं आखिर समय पर ही पूरी तरह देश  को विकसित कर देंगे तो उनकी नौकरी की जरूरत पर ही संदेह हो जाएगा। जाहिर है किसी भी अक्लमंद को अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारने की जरूरत नही  है।
अब माता पिता का हाल देखिए खुद देर से सोएंगे बच्चे से समय पर सोने को कहेंगे, जो खुद खाएंगे पीएंगे वही बच्चों से मना करेंगे । जो खुद करेंगे वह बच्चों से न करने को कहेंगे। आखिर अनुशासन   तोड़ने का पाठ हम अपने माता-पिता के अनुशासन  तोड़ने से सीखते हैं कि बड़ा होने का मतलब स्वयं को अनुशासन   से बाहर रखने का ही है।
इसी प्रकार गुरूजन भी वही सब करते हैं जो वे छात्रों से न करने को कहते हैं । पढ़ना लिखना एम0ए0 करने के बाद न छोड़ पाए तो नौकरी मिलने के बाद पढ़ना बंद कर ही देते हैं। छात्रों से कहेंगे समय पर आएं खुद देर से आऐंगे, छात्रों से कहेंगे राजनीति मत करो खुद राजनीति करेंगे इससे भी हमें यह सबक मिलता है जो कहो वह मत करो, अर्थात अनुशासन शब्द में हो तो कर्म में तो कतई न हो, इससे रचनात्मकता का विकास होता है, आखिर बार-बार वही करना जो करणीय न हो और जो करणीय हो, न करना सबसे बड़ा लक्ष्य रखना चाहिए । सुपुत्र (सुपुत्री भी) वही हैं जो अपने माता पिता से कई कदम आगे हों । अतः हमें गुरूजन तथा माता-पिता से ये ही सारे गुर सीखने चाहिए, जिससे हम लायक सिद्ध हो सकें ।
अब देखिए घर पर फोन आने पर या किसी के घर आने पर माता-पिता कहते हैं बेटा कह दो घर में नहीं हूँ , बेटा फोन पर कह देता है ‘‘पिता जी कह रहे हैं कि वे घर पर नहीं हैं।’’ उत्तर में वह पिता के गुस्से का शिकार  होता है । इससे भी सिद्ध होता है कि पिता जो कहते पर असल वह वहीं न करने का कह रहे होते हैं। यह अनुभव भी आपको सबक सिखाने के लिए काफी है ।
सो मैं तो हर पढ़े और बडे़ आदमी से निवेदन करूंगा कि आप अपने स्तर पर अनुशासन तोड़ें, तोड़ने का अभ्यास करें, खुद तोड़ें औरों से तोड़ने का निवेदन करें,  जो न तोड़े  तो उन्हें अनुशासन  पालन करने का सबक सिखाएं । आखिर इस देश में अनुशासन का सबक सिखाते हुए गाधी बनने से तो कोई लाभ है नहीं  । सही काम कर माफी मांगने या पिटने से तो अच्छा है कि आप जब जहाँ  जैसे हो के आधार पर अनुशासन तोड़ने का यथासंभव अभ्यास करें । अगर अब भी आप अनुशासन तोड़ने का सबक नहीं सीख पाए तो क्या गाधी जी की तरह अपना जीवन  अनुशासन  के बढ़ावे के नाम पर चुका दें और गोली खाकर ही राम-राम कहें।



Tuesday, November 15, 2011

क्या और क्यों सुरक्षित हो भावी के लिए



 साहित्य क्यों लिखा जाना चाहिए और लिखा, छपा, सुरक्षित कर लिया गया साहित्य आखिर किस किस रूप में हमारे लिए मददगार हो सकता है इस पर भी पर्याप्त साहित्य लिखा जा चुका है । उस लिखे को सुरक्षित रखने की चिंता भी एक बड़ा मानवीय सरोकार रखती है कि तमाम तरह की सम्पतितयों के साथ-साथ हम अपनी आने वाली पीढि़यों को अपने समय और समाज की वास्तविकताओं से जुडे़ अनुभवों से जोड़ते हैं जिससे कि उनका चिन्तन न केवल समृद्ध हो अपितु आने वाले समय विशेष में वह बीते समय के उन अनुभवों को भी साझा कर अपने समय के अनुसार निर्णय ले सकें । तब यह कहना भी प्रासंगिक होगा कि हमारे समय समाज के जितने भी अनुत्तरित प्रश्न हैं उनके लिए बीते अनुभवों से हमें रेडिमेड फामर्ूला भले ही न मिलता हो तो भी एक ऐसा उत्तर तो समझ में आता है जो उस परिसिथति विशेष में उस समय विशेष में लोगों द्वारा लिया गया होगा और हम अपने समय समाज की परिसिथतियोें  के अनुसार किंचित परिवर्तन कर वैसा ही कुछ कर लें जैसा कि उस समय विशेष में हमारे पूर्वजों ने किया था, लेकिन आज अगर इसी महत्वपूर्ण बिंदु पर सोचा जाय तो हम इन दिनों अपने समाज में आ रही विविध रूप, अनुभव वाली विधाओं से क्या ऐसा ही कुछ विशिष्ट अनुभव या ज्ञान संजो रहे हैं जो कि वास्तव में इतना महत्वपूर्ण हो जिससे आने वाले दिनों में लोगों को कुछ नर्इ सीख व सोच मिल सके । तब समकालीन साहित्य के लेखन , उसके प्रश्नों, सरोकारोें, उसके सवालों को लेकर बात-चीत और बहस जरूरी हो जाती है कि आखिर ऐसा क्या लिखा जा रहा है जो साहित्य की तात्कालिक उपयोगिता के साथ-साथ भावी प्रासांगिकता को भी प्रस्तुत कर सके ।  
अगर हम भी इस सवाल पर मंथन कर सकें कि क्या इस समय जो भी लिखा जा रहा है और जो भी लिखा जाएगा यह सब तब और महत्वपूर्ण हो जाएगा जब कि हम नहीं रहेंगे या फिर तब हमारे लिखे को आने वाली पीढ़ी उसी तरह से लेगी, तब हमारी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है कि हम प्रकृति में विकास के नाम पर जो भी जोड़ पाए हैं वह सब एक थाती की तरह है लेकिन जो जो हम जोड़ सके हैं वह सब हमारी संतति के भविष्य के लिए न केवल महत्वपूर्ण हो बलिक वह ऐसा कुछ देता हो जिससे कि उसे अपने जीवन जीने में भविष्य में निर्णय लेने में वास्तव में आसानी हो । आखिर सम्पूर्ण विकास प्रकि्रया में अपनी भावी को सुखद जीवन देने की परिकल्पना ही है ।  मैं किसी घुटटी की जरूरत नहीं समझ रहा हूं जिससे सारे विकार मिट जाते हैं परन्तु जिस प्रकार का प्रदूषण सर्वत्र है और जिस प्रकार के दृश्य-अदृश्य विकार अपने आसपास हैं उनको परोसकर एक बीमार दृषिटकोण अगर हम अपनी भावी पीढ़ी को सौंपते हैं तो भी क्या यह माना जाए कि उससे उनका भविष्य सुरक्षित हो सकेगा तब यह चिंतन भी जरूरी है कि क्या लिखा जाय यह सोचना जितना महत्वपूर्ण है क्या न लिखा जाय यह सोचना भी जरूरी है । भोजन के साथ पथ्य की भांति, रेचक की भांति या कि स्वाद ही नहीं , सुस्वादु और स्वास्थ्यकर भी ।  इसलिए लिखे को, कह दिये गए को सुरक्षित रखना अगर जरूरी लगे तो वह कैसा और किस रूप में हो इस पर भी चिंतन जरूरी है । इसलिए क्या लिखा के साथ-साथ क्यों लिखा पर बहस जरूरी है ताकि उस लिख दिये गए का सही-सही मूल्यांकन हो और तब ही यह भी तय होगा कि इस लिखे को कब तक और क्यों सुरक्षित रखा जाय .................।
नवीन चन्द्र लोहनी

Thursday, October 13, 2011

व्यंग्य क्रिकेट पालिटिक्स है




                                                                                                                          नवीन चंद्र लोहनी

                उन्होंने कहा ‘कौन जीतेगा।’
बालकराम जानबूझकर बोले ‘कौन’
‘क्यों, सोए पडे़ हो क्या, चुनाव की बात कर रहे हैं। हारना जीतना और हो कहाँ  होता है।’
बालकराम ने कहा ‘ मैं क्रिकेट की बात समझ रहा था । फिर उन्होंने जोड़ा ‘ क्रिकेट कोई छोटी                                                  पालिटिक्स है क्या ।’
मैं बीच में कूद पड़ा ‘क्रिकेट खेल है और पालिटिक्स पालिटिक्स है ।’ अब दोनों ही मुझे अजनबियों की तरह देखने लगे  और  बोले क्या क्रिकेट क्रिकेट है और पालिटिक्स पालिटिक्स है । 
   ‘हाँ  मैंने कहा तो वे बोले ‘इसे यों समझो क्रिकेट पालिटिक्स है और पालिटिक्स खेल है।’ 
अब मैं राजनीतिविज्ञान का विद्यार्थी बन टपका‘ देखिए आप गलत घालमेल कर रहे हैं । राजनीति सिद्धान्त के लिए की जाती है जहाँ  राष्ट्र की सेवा के लिए अपना तन-मन-जीवन अर्पित कर जाते हैं इसके लिए वे अपनी जान तक अर्पित कर जाते हैं।’ 
बालकराम ने टोका‘ और दूसरे की जान भी ले लेते हैं ।’ 
वे बोले ‘तुम बेकार की बहस में पड़ गए हो । क्रिकेटिया  सीजन है क्रिकेट की बात करते हैं ।’
‘किकेट में कौन जीतेगा ।’
मैंने ज्ञान बघारा ‘जो अच्छा खेलेगा वह जीतेगा ।’
बालक राम ने प्रतिवाद किया, बोले ‘ यह सब फिक्सिंग के आधार पर होता है । इसमें ख्ेालने जैसी कोई बात नही है । वह सब तो दर्शकों के समय बिताने का काम है । असली बात तो भाई लोग कम्प्यूटरों, फोनों और दलालों के मार्फत तय करते हैं ।’
मैंने टोका ‘ बालकराम हर बार उल्टी बात करते हो ।’
बालकराम बोले ‘ लो फिर सुलटी बात करता हूँ , क्रिकेट कौन खेलेगा, यह नेता तय करते हैं । कौन नही खेलेगा, यह भी । किस-किस देश से कब-कब खेलेगा और कब नहीं यह भी नेता ही तय करते हैं । कब खेलने का माहौल है और कब नहीं यह भी नेता ही तय करते हैं । इससे सिद्ध होता है कि क्रिकेट नेता तय करते हैं, और नेता जो भी करते हैं वह राजनीति में आता है ।’   मैंने फिर अपनी सामान्य ज्ञान की शेखी बघारी ‘ चुप भी करो, यह सब क्रिकेट कन्ट्रोल बोर्ड तय करता है।’
बालकराम ने मेरी बुद्धि पर तरस खाया और बोले ‘वो तो क्रिकेट टीम पाकिस्तान भेजने के पक्ष में ही नहीं थे । सुरक्षा की चिन्ता क्रिकेट टीम के कप्तान को भी थी, फिर क्यों गए ।’ अब तक चुप वे बोले ‘क्योंकि माहौल ठीक है। 
मैने फिर मुंह  खोला ‘ क्योंकि वहाँ  फील गुड हो रहा है ।’
‘ ऐसी तैसी फील गुड हो रहा है मुशर्रफ जिस जबान से भारतीय टीम को जीत की बधाई देता है उसी जबान से आगरा से अब तक के सारे मामले को कश्मीर में घुसाड़ देता है, उसका आका भी तुरन्त उसे दोस्त कह कर नवाजता है और अपने फील गुड वाले मुंह ताकते रह जाते हैं ।’ 
मैंने कहा  ‘ लेकिन क्रिकेट तो अच्छी हो रही है ।’
          ‘तो अब तक किसने रोका था क्रिकेट टीम को, पाकिस्तान जाने से । पांच साल तो इस सरकार ने भी काट लिए । मेरा तो कहना है कि चुनाव न हो रहे होते तो भारत पाकिस्तान क्रिकेट भी नहीं हो रहा होता । यह सारा मामला चुनाव से ही जुड़ा हुआ है । न चुनाव होते । न फील गुड होता । न ही क्रिकेट हो रही होती ।  
मैं फिर दर्शन बघारने लगा ‘ जब जागो तभी सवेरा । क्या बुराई है अब क्रिकेट शुरू हो गया तो । इससे यही तो पता चलता है कि सम्बन्ध सुधर गए हैं ।’
‘ अरे न जनता ने कारगिल कराया, न ही मुशर्रफ को जनता ने बुलाया था । दो वर्ष तक सीमा पर सेना का  जमावड़ा खड़ा कर तनाव पैदा कराने वाले भी तो वे ही थे और उन्होंने ही देश के हजारों नौजवानों कर कारगिल की भट्टी में झोंका था । कभी कारगिल लड़ा के चुनाव जीत लो और कभी क्रिकेट करा के । यह सब पालिटिक्स है ।’
वे बालकराम से मुखातिब हुए बोले ‘ जब सब पालिटिक्स है तो चलो चुनाव पर बात करते हैं । क्या रखा है क्रिकेट में ।’ 
मैं उत्साहित होकर बोला ‘ कौन जीतेगा चुनाव में ’
बालकराम ने  पटाक्षेप करते हुए कहा ‘ पहले यह तो देख लो कि क्रिकेट में कौन जीतता है । इसी से यह भी तय होगा कि चुनाव में कौन जीतता है ।’
मैं अवाक् रह जाता हूँ  ।

                                                                                                                                   

Saturday, September 24, 2011

व्यंग्य राहत कमेटी में ट्रान्सफर करा दे बाबा



                              नवीन चन्द्र लोहनी

                 जब से पहाड़ पर वर्षा और बाढ़ आई है मेरे एक मित्र की पत्नी को अचानक अपने आप पर कोप हो आया। उनको पहाड़ से उतरे बहुत दिन नहीं हुए। यह दुर्घटना भी इसी साल घटनी थी और मित्र को भी इसी वर्ष स्थानान्तरण करवाना था। लाहौल विला कूव्वत। विगत् गर्मियों में अनेक शहरों को डुबा देने वाली बाढ़ के कारण उनका मन पहाड़ से मैदान की ओर हुआ था। ये कल्याण अधिकारी तब जनकल्याण की भावना से ओतप्रोत होकर पहाड़ से मैदान उतर आये थे, पर इस ऊपर वाले से उनको हमेशा नाराजगी रही, वे जहाँ भी ‘कल्याण‘ करने गये वहॉं न कोई बाढ़ आती है, न सूखा पड़ता है और न भूकम्प आते हैं न दंगे, न झगड़े, आखिर क्या करेंगे वे ऐसे पद को हथिया कर जो कोई जुगाड़ ही न बैठा सके।
              विगत् दिनों बाढ़ का प्रकरण जोरों पर चला उन्होंने अपने पढ़ने-लिखने के दिनों के साथी विधायक की ससुराल के दहेज में आये पैसे से मदद की और बाढ़ का दौर शुरू होते ही ट्रान्सफर करवा लिया, परन्तु रिलिविंग और ज्वाइनिंग का चक्कर जब खत्म होता तब तक बाढ़ उतर चुकी थी। राहत बंट चुकी थी। कल्याण अधिकारी के पास फिर मेज पर ऊँघने के सिवा कोई काम न था। बड़ी मुश्किल से पत्नी को मनाया कि इस बार नहीं तो अगली बार सही, बाढ़, सूखा, दंगा कुछ न कुछ होगा, फिर कल्याण कार्य करेंगे, फिर तो विधायक और मन्त्री को दी गयी ‘सहयोग राशि‘ वसूल लेंगे और कुछ प्लाट, मकान, गाड़ी के लिए भी सोचेंगे। पर उसकी परेशानी का कारण बर्षा की यह मार इतनी जल्दी आने की कोई भनक उसे होती तो वह ईश्वर कसम पहाड़ से कतई-कतई न उतरता। पहाड़ में वर्षा क्या  आई, भूकम्प उसके घर में आ गया। पत्नी कोप भवन में चली गयी। अब कहाँ वह विधायक उनके हाथ आता कि वरदान मांगती राम की तरह उसे वनवास दिया जाये जिसने तब उतनी देर स्थानान्तरण करवाने में लगा दी और अब है कि सुध नहीं ले रहा। अरे! किसी कमेटी-वमेटी में राहत-वाहत का काम दे दिला देता। कुछ उसे भी मिलता। वे उसके अनन्य मित्र थे, उस अनन्यता का कारण भी वे खुद थे जब भी ऐसी विपदाएॅं आती मौके-बेमौके उसकी सेवाओं का लाभ लेते रहते।
वे आये। अपनी पीड़ा, जनसेवा का दर्द, अपनी ललक सब उन्होंने बताई। भाई वे तो फिर कोप भवन में हैं, मैंने लाख कहा अरे क्या हुआ कभी तो यहाँ भी ऐसा कुछ होगा। घूरे के भी दिन फिरते हैं पर वह है कि मानती नहीं, कहती है कि स्वास्थ्य खराब होने के आधार पर ही सही तुरन्त पहाड़ पर स्थानान्तरण कराओं“ मैंने कहा ‘मित्र पिछली बार भी तो सम्भवतः ऐसा ही कुछ आपने किया था’ बोले उस बार माताजी के खराब स्वास्थ्य को लेकर मैंने यहाँ स्थानान्तरण करवाया था इस बार ‘वो’ कहती हैं कि स्वास्थ्य मेरा ही खराब बता दो पर किसी तरह पहाड़ पर स्थानान्तरण करवा लो। मैं क्या करूँ? आज तीन दिन से वे अन्न-जल बिना बैठी है मुझे तो लगता है कि कहीं कुछ बुरा न कर बैठे।“
मैं मित्र की कातरता समझ गया ”बोलो क्या करें, चलो मैं चलता हूँ, भाभी को कुछ तो बताएॅं कि इतनी जल्दी स्थानान्तरण नहीं हो सकता। हाँ वे घूमना ही चाहें तो उन्हें तुम पहाड़ पर घुमा ले आओ।“ उसने सिर पकड़ लिया बोला ”अगर वे ऐसे ही घूमना चाहती तो फिर मना क्या थी। वो तो मेरे घर वालों ने ही शादी के समय कह दी थी, जिसके बल पर दो लाख रुपये नकद दहेज लिया था वह मुझे डुबा रहा है मैं अगर समझता तो................।“
मैं उनके घर पहुँचा। वे पस्त हाल लेटी थी। मित्र की ओर देखकर गुस्से से उन्होंने आँखें उचकाईं। बोली ‘भाईसाहब, मेरा तो पल्ला ही ऐसे आदमी से पड़ा। क्या करूँ।’ मैंने सान्त्वना देते हुए कहा ‘परेशानी क्या हो गयी भाभी, ये तो मुँह लटकाये मेरे घर आया, मैं तो किसी अनिष्ट की आशंका से डरा हूँ। बताओ क्या बात हो गयी।“ वे बोली ”आपको पता नहीं है क्या, ये तो मेरी चुगली कर ही आए होंगे। देखो मैं तो कहती हूँ कि अरे जहाँ कोई काम नहीं वहाँ रहकर क्या करोगे। पिछले साल जब बाढ़ आई तो मैंने इनसे रिक्वेस्ट की कि मैदान में ट्रान्सफर कराओ, इनको जब बात समझ में आई तब तक बाढ़ जा भी चुकी थी। राहत बंट चुकी थी। ये क्या करते यहाँ आकर खाक। तब मैंने कहा छोड़ो ट्रान्सफर रुका लो, अब क्या यहाँ सड़ी गर्मी में मरने आए पर ये मेरी मानते कब हैं और अब भी इन्हें होश तब आयेगा जब वर्षा की राहत और पुनर्वास का काम पूरा हो जायेगा तब से वहाँ जायेंगे। इनकी अक्ल तो मेरी समझ से पथरा गयी है।’ मैंने कहा ‘तो कोई बात नहीं अगर आपको जनसेवा का इतना शौक है तो चलते हैं, कुछ मेडिकल से लोगों की ले लेते हैं कुछ और साथी चलेंगे, थोड़ी सेवा ही हो जाये जीवन सार्थक हो जाये।“
वे मुझ पर भी बिफर गयी, ‘मैं सोच तो रही हूँ, इनको क्या हो गया है, इनके तो आप जैसे ही सलाहकार होंगे। तभी। तभी तो ये आजकल ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं। अरे इस शहर में कितनी संस्थाएॅं हैं जो गरीबों, बेसहारों, परेशान लोगों के साथ होने का दावा करती है। उत्तराखण्ड के कल्याण, सेवा के नाम पर इसी शहर में कितनी संस्थाऐं हैं कितने लोग गये वहाँ, ”हाँ अखबारों में जरूर यहीं बैठकर सरकार को कोस रहे हैं कि राहत ठीक नहीं चल रही कि उनको दुख है कि वे सबसे मदद की अपील करते हैं। अरे इस देश में कौन जन
सेवा के लिए इतना रोने लगा, किसी को अखबार से प्रचार चाहिए, किसी को वोट चाहिए, किसी को इसी बहाने पुरस्कार मिल जायेंगे, कोई पहाड़ पुत्र घोषित हो जायेगा और कोई सबसे बड़ा देश सेवक, गरीबों, असहायों का मसीहा। फिर वह चुनाव लड़ेगा, वोट मांगेगा, या फिर किसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था से जुड़कर पुरस्कार लेगा या देगा दिलायेगा, कोई अपनी राहत समिति के बहाने घर, गाड़ी बना लेगा, कुछ ऐसे आप जैसे लोग भी होंगे जो अपना समय, पैसा बरबाद कर घर आयेंगे और बीबी से लड़ेंगे कि घी इतना खर्च कर दिया कि बच्ची की फ्राक अगले माह ले लेंगे, कि क्लब जाना बन्द करो या फिर इसी माह से कटौती शुरू। मैं लानत भेजती हूँ ऐसे आप जैसे लोगों पर।“
वह चादर तानकर फिर लेट गयी हैं। मेरे सिर पर अक्टूबरी प्रातःकालीन ठंड में भी पसीने की बूँदें उतर आयी हैं। मित्र भी सिर पकड़े पूर्ववत् बैठा है। मैं अकेला उसके ट्रान्सफर चिन्तन की नहीं इन सबकी चिन्ता में पड़ा वापस घर लौट जाना चाहता हूँ क्योंकि यह सच जब वे फिर बोलेंगी तो मैं चीखने लगूँगा, नोचने लगूँगा खुद को भी। आप सब कुछ के बाद भी उसके दर्द को समझें, हो सके तो उसका स्थानान्तरण फिर पहाड़ पर करवा दें, उसका भी भला हो जाये। जब डूबती गंगा में दो हाथ मारने का ही सवाल है और ज्यादातर कल्याणकर्मी यही कर रहे हैं तो मेरे इस मित्र ने ही क्या बिगाड़ा है।
...........................                                                                              

व्यंग्य जाँच जारी है...........




                                                                                                  नवीन चन्द्र लोहनी
जाँच चल रही है, प्रतीक्षा कीजिए।“
”समिति व्यस्त है, कुछ सदस्य विदेश गये हैं, जाँच का कार्य तेजी से आगे बढ़ रहा है।“
”जाँच का कार्य कुछ दिन के लिए स्थगित, समिति के अध्यक्ष का देहावसान, नये अध्यक्ष के लिए जाँ....।“
”समिति का एक तिहाई काम पूरा, समय फिर पाँच साल के लिए बढ़ाया गया।“
”जाँच समिति बर्खास्त, नये सिरे से जाँच शुरू।“
ऐसी हजारों सुर्खियाँ साल भर में पाठकों को अखबारों, दर्शकों को दूरदर्शन तथा श्रोताओं को आकाशवाणी से परोसी जाती हैं। जाँच समितियों का कार्य बड़ा पेचीदा बताया जाता है। जाँच समिति में कुछ न कुछ नया लफड़ा खड़ा करने के स्रोत तलाशे जाते हैं, बहरहाल जाँच चालू रहती है........।
एक जाँच समिति बैठी, पता चला कि किसी दफ्तर की फाईलें कुतरी हालत में पायी गयी। सुबह से शाम तक दफ्तर का अमला व्यस्त रहा कि कैसे इन फाईलों को ”राइट आफ“ करवा दें। वर्ना जाँच समिति बैठ जायेगी। परन्तु अपने देष की दुरुस्त गुप्तचर व्यवस्था के कुछ पैने चष्मे वाले जाँच अधिकारियों को भनक लग गई। जाँच समिति बैठ गई। फिंगर प्रिंट विशेषज्ञ, जासूसी कुत्तों, के विशेष दस्ते साथ में लगाये। काम तेजी से चलने लगा। विदेशी हाथ की खोज शुरू हुई, दो-तीन चपरासी और क्लर्क नुमा पदधारी लापरवाही के आरोप में सस्पेंड हो गये। (उन्होंने दफ्तर के ऐन गेट पर अपना दूसरा धन्धा चला लिया।) परन्तु जाँच चलती रही। शहर में रहने वाले ”ब्लेक लिस्टेड“ लोगों पर नजर रखी जानी लगी। शहर तथा उसके आसपास रहने वाले विदेशियों के वीजा पासपोर्ट चेक हुए। विदेशी हाथ की सम्भावनाओं को खोजा गया। कुतरी फाईलों के चूरे को देष के सबसे बड़े रासायनिक शोध केन्द्र को भेजा गया। वैज्ञानिकों द्वारा इसमें तो महज किसी चूहे या ऐसे ही जानवरों द्वारा कुतरे होने की सम्भावना व्यक्त की गयी। चूहे के बालों, मल आदि का जिक्र भी रिपोर्ट में था। वैज्ञानिकों ने राय दी कि इतनी खतरनाक फाईलें कुतरने के बाद तो चूहा खुद व खुद मर गया होगा। (गोपनीय आख्या में यह बात भी अंकित की कि वह कोई भारत के नेता अफसर थोड़े ही हैं, सारा का सारा उड़ा जायें और मस्ती भी छानते फिरें।)
संसद में रिपोर्ट पर हंगामा हुआ। विपक्षी और पक्ष दोनों कश्मीर मुद्दे की भांति इस जाँच के एकदम खिलाफ थे, उन्होंने पाया कि इसमें चूहे को प्रतीक बनाकर हमारे चरित्र हनन की मानसिकता झलकती है। सदन में घ्वनिमत से प्रस्ताव पारित हो गया कि जाँच कार्य में लगे वैज्ञानिकों की रिपोर्ट एकदम अवैज्ञानिक है। इसमें किसी विदेशी हाथ की गन्ध आती है। वैज्ञानिकों को कठोरतम दण्ड देने का प्रस्ताव भी तालियों की गड़गड़ाहट व मेजों की थपथपाहट के बीज पारित हो गया।
नया वैज्ञानिक दल इस बात पर केन्द्रित कर दिया गया कि फाइल में चूहों की घुसपैठ की सारी सम्भावनाओं पर विस्तृत जाँच करे और सावधान भी कर दिया गया कि भविष्य में प्रजातन्त्र के प्रातः स्मरणीय ‘नेतावर्ग‘ पर दोष लगाने का हश्र पूर्व जाँच समिति की भांति होगा। सत्ता पक्ष ने अपनी ओर से सदन के नेता को यह प्रस्ताव भी दे दिया कि भविष्य में अगर कोई भी व्यक्ति चूहे, सियार, बिल्ली, गधे, कुत्ते, लोमड़ी या ऐसे ही किसी अन्य जानवर से उसका सम्बन्ध जोड़े तो उसकी नागरिकता समाप्त की जाये। (विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि यह रिपोर्ट आगामी सत्र में सदन के समय विधेयक के रूप में पारित करा ली जायेगी)
हाँ, तो इस बीच जब तक कि नये वैज्ञानिक दल पुनः कार्यभार सम्हालता जाँच में विदेशी हाथ की सम्भावनाअें पर खोज करने दल के अनेक सदस्य विदेशों में अनेक शहरों में घूम आये (ध्यान इसमें इतना रखा गया कि जिस जाँच कर्ता के पुत्र-पुत्रियों पत्नी-प्रेमिकाओं ने जो स्थान पूर्व जाँ कमेटी के बतौर सदस्य नहीं देखे थे उन्हें वहाँ भेजा गया, इसका कारण बताया गया कि कोई स्थान पूर्व से न देखे होने के कारण उनकी जाँच में कोई पूर्वाग्रह, स्थानीय मेलजोल दबाव नहीं चलेगा।) जांच समिति ने खूब कसरत की। विदेशी शहरों में घूमते हुए उन्हें वहाँ के दूतावासों से लेकर देश तक सारे लोगों ने हाथों-हाथ लिया। बताने की जरूरत नहीं कि उन्होंने विदेशी हाथ खोजने के बजाए पिकनिक का लुत्फ उठाने में ही अपना कीमती समय लगाया। बतौर भारतीय प्रतिनिधि वे कुछ बड़ी टोपियों और टोपों से मिल आये। (उनके फोटो दूरदर्शन में आप देख ही चुके हैं।
इन सब जाँच सूबों की रिपोर्ट की प्रतीक्षा से पूर्व फिर संसद में हंगामा होने लगा, विपक्षी नेताओं ने आरोप लगाये कि इसमें गहरी साजिष है क्योंकि जिस अलमारी में ये फाइलें थी, वे बाहर निकले चूरे को वैज्ञानिकों को भेजने के बाद से बंद थीं। हंगामांे के कारण सत्ता पक्ष अपने साल भर के पिकनिक का नया बजट पास नहीं कर पा रहा था, अतः आलाकमान ने उच्चस्तरीय नेताओं के साथ विचार-विमर्श कर न्यायाधिकरियों के समक्ष अलमारी खोलने का निश्चय किया। यूँ तो बैठक में सारी स्थितियों का आकलन करने के बाद अलमारी खोलने मंे सत्तापक्ष की गत बिगड़ने के आसाार बाताए गये थे। पर ईमानदार शिखर पुरूष ने जब कांपते हाथों से दूरदर्शन की मौजूदगी में मुस्कराते हुए सील तोड़कर ताला खोला, तो अन्दर से अनेक तरह की गुर्राहटें आने लगी। भयभीत ”आलाकमान“ ने जब तक कुछ प्रतिक्रिया व्यक्त करने हेतु स्वयं को संयत किया अलमारी खुल चुकी थी। दूरदर्शन के कैमरामैन, स्वदेशी-विदेशी पत्रकार, पुलिसिए, सम्मानीय नेतागण देखते रह गये। कुतरी गई फाईल का नाम था ”राष्ट्रीय एकता“ और कुछ टोपियाँ, कुछ पगड़ियाँ, कुछ दाड़ियाँ, कुछ झण्डे और कुछ डण्डे थामें चूहे एक स्वर में चिल्लाए ”हम भारत के नेता नहीं हैं, अखबारों के लिए कल का हमारा यही बयान है।“ राष्ट्रीय एकता की यह अद्भुत मिसाल देखते ही आलाकमान के दूरदर्शी चेहरे की मुस्कान फीकी पड़ गयी।
पीछे खड़े पी0ए0 की सलाह को मानकार आलाकमान ने तुरन्त अलमारी को पुनः सील करने का फरमान जारी किया। अलमारी बन्द होते ही ”देश“ नाम फाईल जोर से बिलबिलाई। टोपियाँ, दाड़ियाँ, पगड़ियाँ फिर फाईलों में मुँह डालकर अपना भोजन तलाशने लगी। अलमारी में रखी ”राष्ट्रीय एकता“ वे ‘देश‘ नामक फाईलें आंसू बहाती रही।
आलाकमान ने एक और बैठक सम्बोधित की और जोर देकर कहा ”अखबारों की सुर्खियों में छपी वे सभी खबरें भ्रामक हैं जो देश व राष्ट्रीय एकता के संकट में होने की बातें बताती हैं। हमने देश व राष्ट्रीय एकता को अलमारी में सुरक्षित सील के अन्दर बन्द किया है ताकि कोई भी शरारती तत्व इनसे छेड़छाड़ न करे। कुछेक समाचार पत्रों में देश के ‘महान‘ लोगों को चूहे की शक्ल में फाइलें कुतरते दिखाया गया है, यह चरित्र हनन का प्रयास है। हम इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। जो भी अलमारी के अन्दर फाइलों के साथ देखे गये थे, वे सत्ता पक्ष के सैनिक हैं। उनकी राष्ट्रभक्ति पर उंगली उठाना देशद्रोह है। सम्पूर्ण कुतरन को जाँचने हेतु समिति गठित कर दी गयी है परन्तु यह अभी स्पष्ट कर दिया जाता है कि इसमें किसी भी जनतन्त्र समर्थक महान नेता या दल का हाथ नहीं है। विपक्षी दलों में कुछ विदेशी एजेन्ट जरूर हैं उनकी जाँच हेतु कमेटी बैठा दी गयी है जैसे ही रिपोर्ट प्राप्त होगी, आम जनता को सौंप दी जायेगी। ‘देश‘ और ‘राष्ट्रीय एकता‘ दोनों स्वस्थ हैं। कार्टनों और व्यग्यों के माध्यम से इन्हें अस्वस्थ कहने वाले पत्रों और पत्रकारों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया जायेगा। कुतरन में लगे हर अपराधी को कड़ा दण्ड दिया जायेगा। .........हमारा देश महान है, हमारी परम्परा महा है......... बहरहाल अखबारों में छपी यह रिपोर्ट भी गलत है कि जाँच का काम बन्द कर दिया गया है, बल्कि जाँच को भिन्न-भिन्न सिरों से खोल दिया गया है। सभी समितियाँ जाँच कार्य में व्यस्त हो गयी हैं। हमें आज्ञा है जनता धैर्य से जाँच समिति के प्रतिवेदन की प्रतीक्षा करेगी। जाँच जारी है........................।
(बयान खत्म होते ही जनता ने देखा कि कुछ नेतानुमा लोग फिर ”राष्ट्रीय एकता“ वाली अलमारी में जाने के लिए बिलों की ओर दौड़ लगा चुके थे, अचानक दूरदर्शन में एक पट्टी चढ़ गयी ”रुकावट के लिए खेद है।“
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