हिन्दी वालों के बीच लगातार एक चर्चा चल रही है कि हिन्दी पाठ्यक्रमों में आधार पाठ्यक्रम का चयन किस प्रकार किया जाए? मैं पाठ्यक्रमों में चयन के लिए मीडिया में प्रसारित नए सीरियलों, वृत्त चित्रों, फिल्मों, विज्ञापनों सहित तमाम फीचरों को पाठ्यक्रम का एक आधार बनाने की पैरवी करता हूँ। मेरा सोचना है कि भविष्य में अगर हिन्दी के विकास के लिए कोई चीज जिम्मेदार होगी तो उसमें सर्वाधिक वे चयन होंगे जो वर्तमान हिन्दी के स्वरूप को उद्घाटित करने वाले होंगे जाहिर है कि इसमें सर्वाधिक, चर्चित विकासक्रम, संचारमाध्यमों द्वारा अपनाई गई हिन्दी का ही है जिसमें पारम्परिक हिन्दी बरक्स एक ऐसी हिन्दी खड़ी हो गई है जो आज अपने आप में अधिक प्रभावशाली, आक्रामक और सुलभ तरीके से लोगों के बीच पहुँच रही है। ऐसी हिन्दी से मेरा तात्पर्य है जो संस्कृतनिष्ठ बोझिलता से बाहर है और जिसमें उर्दू उच्चारण भंगिमा या अंग्रेजी की उच्चारण भंगिमा का अतिक्रमण होते हुए बंगला, मराठी, पंजाबी का हिन्दीकरण करते हुए एक अलग तरह की हिन्दी हमारे बीच आ रही है। मैं ऐसी हिन्दी का पक्षधर हूँ जो अपनी वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए किसी भी भाषा की शब्दावली को आत्मसात कर सके और उस परिवर्तन को हिन्दी की प्रवृत्ति के साथ तालमेल बिठाते हुए प्रयुक्त किया जाए कि वह भविष्य में हमें कभी भी बेगानी न लगे।
ऐसी हिन्दी खोजने के लिए आपको आज के संचार माध्यमों जाना पडेगा जहां पर हिन्दी के तरह-तरह के विकसित रूप प्रकट हो रहे है। ब्लॉग की दुनियां ने हिन्दी को एक नया आकार प्रकार दिया जो किंचित टेलीविजन माध्यमों और प्रिंट माध्यमों से आगे निकल रही है। अजीबोगरीब नामों से निकल रही कई पत्रिकाओं में व्यक्ति अपनी कुंठा से लेकर सदिच्छा तक लोगों तक निर्विरोध पहुँचा रहे हैं। जाहिर है उसका पक्ष-विपक्ष अभी तय होना बाकी है। लेकिन किसी भी भाषा के विकास के लिए उसके अपने विकास के तमाम रूपों को आगे आना जरूरी है। अर्थात् जब भी हम यह कहते हैं कि हमारी भाषा के विकास के नए रूपों को हम पहचानना चाहते है तो हमें किताबों की दुनियां से बाहर आकर एक ऐसी दुनियां भी अब आकर्षित कर रही है जो स्क्रीन पर है, जो जबान पर हैं और जिसका प्रयोग आमोखास बेखटके कर रहे हैं। इसलिए अगर हम यह देखना चाहते कि हिन्दी का एकदम नया चेहरा क्या है तो हमें माध्यमों के इन नए रूप से रूबरू होना एकदम जरूरी है।
मेरा सोचना है कि अगर भविष्य में हिन्दी पाठ्यक्रमों के विकास पर हम बात करें तो हम पाठ्यक्रमों में इस इन्टरनेट के ब्लॉग, टवीटर और फैस बुक पर आए हिन्दी रूप को ही नहीं एसएमएस की दुनियां में चल रही हिन्दी की एक आवाजाही को भी शामिल करें। जाहिर है ये सारे रूप आज की हिन्दी के रूप है। इसी प्रकार अगर टेलीविजन माध्यमों को देखें तो एक-एक चैनल पर आ रही हिन्दी आज उसके जीवन्त रूप को बनाए हुए है। वह हिन्दी जो किसी साहित्यिक कार्यक्रम में नहीं बोली गई जिसका वाचन कोई साहित्यकार या हिन्दी का भाषाविद् नहीं कर रहा है या जिस रचनाकार को पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं माना गया ऐसा सब कुछ हिन्दी के इस नए बाजार में, बाजारी शब्दावली में कहे हिन्दी की नई मंडी में मौजूद है। वह दूर लेह लद्दाख अरूणाचल कन्याकुमारी अण्डमान निकोबार जम्मू पंजाब में बैठा हुआ हिन्दी का प्रयोग कर्त्ता है जिसका मातृभाषा के रूप में हिन्दी से कोई सरोकार नहीं रहा और यह भी हो सकता है कि एक स्तर तक वह हिन्दी पाठ्यक्रम का विद्यार्थी न रहा हो किन्तु हिन्दी फिल्मों, गीतों, समाचार चैनलों से परिचित होते ये चेहरे अब हिन्दी के नए उपभोगकर्ता चेहरे है तो क्या हम भविष्य की हिन्दी में इनके द्वारा प्रयुक्त की जा रही हिन्दी की भारतीय छवि को शामिल नहीं करेंगे। आगे बात करें तो दूर मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, गयाना, बर्मा, नार्वे सहित अन्य देशों में गए भारतीयों की बात करे जो कभी भारतीय मजदूर के रूप में वहां गए थे और आज भी हिन्दी प्रयोग किंचित बदलाव के साथ उनकी नई पीढ़ियाँ कर रही है या फिर वे टेक्नोक्रेट चिकित्सक और व्यवसायी जो विदेशों में रहकर हिन्दी के नए प्रयोगकर्ता बने है और जिनके बीच भारतीय भाषाओं की सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी अपना नया रूप ग्रहण कर रही है। मैं समझता हूँ हिन्दी के इन नए प्रयोगकर्ताओं पर और नई हिन्दी के प्रयोगकर्ताओं पर भी अब हिन्दी का भविष्य निर्भर है। इसलिए अगर हम सोचते है कि हिन्दी में नए बदलावों को आत्मसात करने और लागू करने की आवश्यकता है तो हिन्दी के इस नए प्रयोगकर्ता वर्ग को जानना, समझना, पहचानना पड़ेगा और उनकी हिन्दी को अपनी हिन्दी कहकर हिन्दी प्रयोग के इस नए परिप्रेक्ष्य को समझना भी पड़ेगा।
मेरा प्रस्ताव है कि हिन्दी पाठ्यक्रमों में टेलीविजन सीरियल, फिल्मों, वृत्त चित्रों, फीचरों, विविध समाचार विश्लेषण से जुड़े कार्यक्रमों तथा समाचार चैनलों में प्रसारित बुलेटिनों की हिन्दी को भी जोड़ना चाहिए। अगर हम हिन्दी में यह सब जोड़ते है तो हिन्दी बड़ी होती है और हिन्दी प्रयोगकर्ता के रूप में जो भी व्यक्ति हिन्दी अपनाने की कोशिश करता है वह हिन्दी का सिपहसलार बनकर उसके प्रयोग को बढ़ावा देता है। दूसरी तरफ नए माध्यमों में आ रही हिन्दी को भी उसी प्रकार अपनाने की आवश्यकता है। इन्टरनेट समाचार पत्रिकाओं से लेकर इन्टरनेट पर उपलब्ध हिन्दी की पत्रिकाओं और ब्लॉगों में हिन्दी का एक व्यापक संसार तैयार हो गया है इनमें वे पत्रिकाएं भी है जिन्होंने हिन्दी के परम्परागत साहित्य को आधार बनाकर अपना रूप निर्धारित किया है और वे भी अधुनातन शोध और ज्ञान की अधुनातन शाखाओं को अपने आधार सामग्री के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। जाहिर है ये सब हिन्दी के नए हितैषी है। कम्प्यूटर की दोस्ती के चलते करोड़ों पेज आज नेट पर उपलब्ध हैं तो क्या भविष्य में अगर हम हिन्दी पाठ्यक्रमों को निर्धारित करते है तो उनसे हिन्दी का लगाव बढ़ाने के लिए और उनके हिन्दी के प्रति प्रेम को बनाए रखने के लिए उनसे हिन्दी के नए पाठक वर्ग को जोड़ने का अपना कर्त्तव्य पूरा करना हमारी जिम्मेदारी नहीं है? अगर है तो हिन्दी के भविष्य के आधार पाठ्यक्रम चाहे वह स्कूल के स्तर के हो अथवा स्नातक और उच्चतर स्तर के लिए हिन्दी प्रयोग के इस नए क्षेत्र को भी हिन्दी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना होगा।
बहुत सुन्दर विचार रखे हैं आपने। आपसे अक्षरतः सहमत हूँ।
ReplyDeleteलोहनी जी,
ReplyDeleteसहमत हूं आपके विचारों से। दरअसल, जो भाषा टीवी सीरियलों में प्रयोग की जाती है, वह बहुत जल्दी ही लोगों की जुबान पर चढ़ जाती है। एक तरह से यह भाषा के प्रति सहज स्वीकृति होती है। बोलचाल की यही भाषा जनभाषा का रूप अख्तियार कर लेती है। मीडिया में जिस भाषा का प्रयोग होता है, वह बोलचाल की सहज भाषा है। इस भाषा में न शाब्दिक आडंबर है और न क्लिष्टता। इसीलिए यह सहज रूप से ग्राह्य होती है। पाठ्यक्रमों में इस भाषा को आधार बनाने केनिश्चित रूप से भाषा का विस्तार होगा। यही किसी भाषा के लोकप्रिय होने केलिए सबसे जरूरी होता है।
आपका ब्लाग बहुत सुंदर और विचारपूर्ण है। बधाई।
मेरा शुरु से ही मानना है कि रोजमर्रा के प्रयोग की भाषा हिंदुस्तानी होनी चाहिए...हम उस भाषा को हिंदी की जगह यदि हिंदुस्तानी ही कहें तो बेहतर है...इससे हिंदी का कौमार्य भी बचा रहेगा। अंग्रेजी की प्रगति का कारण एक ये भी है कि उसने दुनिया भर की भाषाओं से उन शब्दों का हमेशा स्वागत किया जिनका अंग्रेजी में अनुवाद संभव नहीं था या प्रभावशाली नहीं था। आप यदि रेल को लौह पथ गामिनी लिखेंगे तो भाषा की जटिलता बढ़ेगी जो आम आदमी के लिए सहज स्वीकृत नहीं होगी।...लेकिन मेरा मानना है कि हिंदी के नियम तोड़ने वाले को यानी भाषा को भ्रष्ट करने वाले को पहले भाषा का शास्त्रीय ज्ञान होना जरूरी है। पढ़ाई शास्त्रीय हो और ज्ञान अर्जित करने के बाद एक पुस्तक/अध्याय मीडिया की हिंदी या हिंदुस्तानी पढ़ाई जानी चाहिए...जय हो आपकी
ReplyDeleteफोन्ट छोटा है इसलिये पढ़ नहीं सका
ReplyDeletehttp://merajawab.blogspot.com
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आपके विचारों से सहमत हूँ ।
ReplyDeleteकार्यान्वित भी आप लोग ही करेंगे ऐसी आशा है क्योंकि दृष्टि भी है और साधन भी ।
वशिनी शर्मा