Monday, August 23, 2010

राष्ट्रमंडल खेलों में भी हिंदी का भाषण

हिंदी को बढ़ावा दिया ट्रिब्यून एवं गुरमीत सिंह ने

हिंदी हैं हम!


Posted On August - 20 - 2010

खबरों की खबर


गुरमीत सिंह


स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से देश को लगातार सातवीं बार संबोधित करते प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को देखकर एक बार फिर हिंदी का ख्याल मन में आया। टीवी पर साफ दिखा कि प्रधानमंत्री हिंदी में जो भाषण पढ़ रहे थे वह देवनागरी लिपि में नहीं उर्दू लिपि में लिखा हुआ था। इसमें कोई एतराज वाली बात नहीं है।अब का तो पता नहीं लेकिन पहले तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का हिंदी का भाषण रोमन लिपि में लिखा जाता था। प्रधानमंत्री की तरह ही पाकिस्तान में शुरूआती शिक्षा लेने वाले बहुत से हमारे बुजुर्ग अभी भी देवनागरी लिपि की जगह उर्दू लिपि में ज्यादा सहज हैं। दूसरी तरफ आज की पीढ़ी उर्दू के बहुत से शायरों को देवनागरी लिपि में पढ़ती है। वैसे भी मैं तो मानता हूं कि हिंदी व उर्दू जुबान में कोई अंतर है ही नहीं और दोनों का झगड़ा केवल सियायत की उपज है।


यह एक संयोग ही है कि स्वतंत्रता दिवस के आसपास ही एक बार फिर हिंदी का सवाल चर्चा में आया है। 21वीं सदी में इस बात पर सभी एकमत हैं कि भारत दुनिया में एक बड़ी ताकत बनकर उभर रहा है। फिर भी अभी तक देश की भाषा हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने का लक्ष्य हमारी सरकार हासिल नहीं कर पाई है। वर्ष 2007 में तो इसी लक्ष्य के साथ केंद्र सरकार ने आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन का उद्घाटन समारोह न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय में किया था और इस समारोह में संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान-की-मून ने हिंदी में भाषण देकर हिंदी-प्रेमियों को बहुत उम्मीदें बंधा दी थीं। लेकिन इस सम्मेलन के बाद भी हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए संयुक्त राष्ट्र में औपचारिक प्रस्ताव पेश नहीं हो सका है। पिछले सप्ताह ही राज्यसभा में प्रश्नकाल के दौरान यह सवाल उठा जिसके जवाब में विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने संसद को बताया कि भारत हिंदी को संयुक्त राष्ट्र में एक आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए लगातार अन्य देशों के साथ पैरवी कर रहा है। भारत द्वारा किए जा रहे प्रयासों को लाभदायक बताते हुए कृष्णा ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र हिंदी में एक साप्ताहिक कार्यक्रम बना रहा है जो उसकी वेबसाइट पर उपलब्ध रहेगा और इसके अलावा ऑल इंडिया रेडियो पर भी इसका प्रसारण होगा।


कृष्णा ने यह भी बताया कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के तौर पर शामिल करने में कई वित्तीय और प्रक्रियागत बाधाएं हैं जिन्हें औपचारिक प्रस्ताव पेश करने से पहले दूर करने की जरूरत है। उन्होंने बताया कि प्रक्रिया के अनुसार, संयुक्त राष्ट्र महासभा को 192 सदस्य देशों के बहुमत से एक संकल्प पारित करने की जरूरत होगी। इसके बाद प्रस्तावक देश के तौर पर भारत को भाषांतरण, अनुवाद, मुद्रण और दस्तावेजों संबंधी अतिरिक्त खर्च को पूरा करने के लिए विश्व संस्था को पर्याप्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने होंगे। कृष्णा के मुताबिक सदस्य देशों को हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के तौर पर शामिल करने में आपत्ति नहीं हो सकती लेकिन वे इससे होने वाले खर्च के बढ़ते बोझ को बांटने के अनिच्छुक होंगे।


चलिए मान लिया कि संयुक्त राष्ट्र में औपचारिक प्रस्ताव पेश करने में भारत को कुछ दिक्कत आ रही है लेकिन भारत में हो रहे राष्ट्रमंडल खेलों के माध्यम से हिंदी को सारे विश्व के सामने प्रोजेक्ट करने का अवसर हमारी सरकार क्यों गंवा रही है? हमारे देश में आने वाले विदेशी अकसर इस बात पर हैरान होते हैं कि हम अपनी भाषा की उपेक्षा क्यों करते हैं? पंजाब विश्वविद्यालय में भी पिछले वर्ष हालैंड से आए एक दल ने सभी साइनबोर्ड अंग्रेजी में देखकर यह सवाल उठाया था। जिसके फौरन बाद कुलपति ने सभी साइनबोर्ड अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी व पंजाबी में भी लगवा दिए हैं। राष्ट्रमंडल खेलों में तो काफी बड़ी संख्या में विदेशी मेहमान और खिलाड़ी आएंगे फिर वहां राजभाषा की उपेक्षा क्यों?


अच्छी बात है कि क्रांति के शहर कहे जाने वाले मेरठ से इस उपेक्षा के खिलाफ आवाज उठ गई है। मेरठ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की पहल पर पहले 7 जुलाई को राजभाषा समर्थन समिति के बैनर तले राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान हिंदी के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए एक अभियान चलाने का संकल्प किया गया और उसके बाद अन्य संस्थाएं भी इस अभियान से जुड़ी है और 27 जुलाई को ‘ राष्ट्रमंडल खेलों में हिंदी’ विषय पर अक्षरम, राजभाषा समर्थन समिति और वाणी प्रकाशन द्वारा इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में 27 जुलाई को आयोजित संगोष्ठी में कई सांसद ,पत्रकार, साहित्यकार व कमेंटटर एक मंच पर आए थे। इस मंच से खेलों की वेबसाइट तुरंत हिंदी में भी बनाने, उद्घाटन समारोह और समापन समारोह जैसे कार्यक्रमों में भारत की भाषा और संस्कृति का प्रतिबिम्ब होने, भारत के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को इन समारोहों में हिंदी में संबोधन करने,खेलों की कमेंटरी व अन्य सामग्री में हिंदी के भी प्रयोग के सुझाव दिए गए हैं। लेकिन इन सुझावों को लागू कराने के लिए संघर्ष की नौबत क्यों आए? आखिर हिंदी हैं हम।


अब तो घोटालों के बाद राष्ट्रमंडल खेलों की कमान भी प्रधानमंत्री ने अपने हाथ में ले ली है। क्या वे राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान हिंदी को चमकने का अवसर देंगे? यदि हम अपने देश में ही हिंदी को बढ़ावा नहीं दे सकते तो संयुक्त राष्ट्र में किस मुंह से हिंदी की पैरवी करेंगे? प्रधानमंत्री जी यदि स्वतंत्रता दिवस की तरह राष्ट्रमंडल खेलों के उद्घाटन समारोह में भी उर्दू में लिखा हिंदी का भाषण दें तो हम हिंदी-प्रेमी जरूर बाग-बाग हो जाएंगे।


प्रोफ.नवीन चन्द्र लोहनी


09412207200

Tuesday, August 10, 2010

पूर्व प्रकाशित


कविता                  सच और झूठ

मुझसे पिता ने कहा


पिता को उनके पिता समझा गये होंगे


‘‘सत्य बोलना पुत्र,


सत्य की सदा विजय होती है।’’


तब कौन सा युग-धर्म


सिखा रहे थे पिता अपने बेटों को।


अब भी क्या वैसा हो होगा,


सत्य का प्रतिरूप?


जैसा कि दादा, परदादा


सिखाते रहे थे अपने बच्चों को,


और जैसा पिता समझाते रहे हमें।


कि सूर्य एक है


ऐसे ही सत्य है एक, शाश्वत।


सब बातें, सारी किताबें के


उलट - पुलट हो रहे हैं अर्थ,


कि ‘सत्य बोलना’ जुर्म सा हो गया हो


अब, जबकि,


तब क्या हम भी यही


सिखायेंगे बच्चों को?


क्या मजबूरी होती है पिताओं की


कि वे बच्चों को सिखाना चाहते हैं,


केवल सच, जबकि


आज बन गया है एक जुर्म


सच बोलना, सुनना या देखना।


झूठ है कि


सच बोलकर ही जी जा सकती है


खुशनुमा जिन्दगी।


आज जबकि हम देख रहे हैं,


सच के मुँह पर है ताला,


और झूठ रहा है खिलखिला,


सच्चों को जीने की देता है शिक्षा


तब हम क्या सिखायेंगे बच्चों को।


जबकि बच्चे जन्मते ही


हो जाते हैं सयाने।


कि पकड़ सकते हैं


मुंह पर ही हमारा झूठ।                डॉ. नवीन चन्द्र लोहनी

Friday, August 6, 2010

जरूरी है बदले दीक्षान्त समारोह के ड्रैस कोड

हमारे देश के शिक्षा तंत्र पर जब भी सवाल उठते हैं तो उनका सम्बन्ध कई प्रकार से किये जा रहे  परिवर्तनों से भी होता है पर एक नया विवाद विश्वविद्यालयों में दीक्षान्त समारोहों मे पहनी जाने वाली धज ( ड्रेस) पर है। सवाल है की  हम आखिर वह सब क्यों पहनते हैं जिनका भारतीय विश्वविद्यालयों की किसी भी परंपरा से कोई भी संबंध नहीं है -------------------------
       जरूरी है बदले दीक्षान्त समारोह के ड्रैस कोड

                   विश्वविद्यालयों में दीक्षान्त समारोहों मे पहनी जाने वाली धज पर नई बहस शुरू हो गई है। हम आखिर वह सब क्यों पहनते हैं जिनका भारतीय विश्वविद्यालयों की किसी भी परंपरा से कोई भी संबंध नहीं है? इस पहनावे का विरोध न तो परंपरागत सांस्कृतिक रक्षा के दावे करने वाले दलों, समूहों की तरफ से हो रहा था न किसी कथित अधुनातन वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले दलों से। इस पहनावे के कपड़े की उपयोगिता स्वास्थ्य की दृष्टिकोण से भी तब शायद इतनी उपयोगी न हो जब इसे ग्रीष्म काल में पहना जाए। यह पहनावा मात्र परंपरा के नाम पर ही चल रहा है। कोई भी ऐसे ड्रैस कोड सामान्यतया तब तक चलते हैं जब तक इन पर कोई कारगर बहस शुरू नहीं होती।
                  केन्द्रीय मन्त्री जयराम रमेश द्वारा इस ड्रैस कोड को लेकर जिस रूप में प्रतिक्रिया दी यह विमर्श नई बहस की अपेक्षा रखता है। इस सन्दर्भ में पूर्व केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी द्वारा उनका समर्थन करना या फिर छत्तीसगढ़ के गुरू घासीराम विश्वविद्यालय द्वारा अपने विश्वविद्यालय के समारोह में कुर्ता, पायजामा तथा पगड़ी को प्रयोग करने से एक नई चर्चा शुरू हुई है। मेरा मानना है कि इस परिप्रेक्ष्य में विचार करने की नितान्त आवश्यकता है कि विश्वविद्यालय अपने दीक्षान्त समारोह में किस प्रकार की वेशभूषा धारण करें।
               अपने अध्ययनकाल से लेकर आज तक मैं दीक्षान्त समारोह में पहने जाने वाले भारतीय विश्वविद्यालयों की ड्रैस देखकर चैंकता रहा हूँ। भारतीयता की दुहाई देने वाले दलों की सरकारों के रहते हुए भी इस ड्रैस कोड को नही बदला गया और आज तक लगभग सभी विश्वविद्यालय एक ऐसे पहनावे को दीक्षान्त समारोहों के मौकों पर पहनते हैं जिसको पहनने के लिए उनके पास तर्क सम्मत आधार नहीं है और हम ऐसे कार्यक्रमों में एक गैरभारतीय ड्रैस पहनते रहे। यह विवाद भले ही जयराम रमेश की तात्कालिक टिप्पणी के कारण उठा हो जब उन्होंने इस पहनावे को लेकर आपत्ति उठाई परन्तु इस बात पर गौर होना निहायत जरूरी है ।
                 यह अचरज की बात है कि किसी भी देश के विश्वविद्यालय, महाविद्यालय अथवा वहाँ दक्ष हो रहे युवक युवतियाँ तथा शिक्षक सालों साल जिस प्रकार के पहनावे को पहनते है और जिस पहनावे के साथ वह अपनी उपाधियों के लिए अध्ययन अध्यापन करते है उपाधि वितरण किए जाने वाले समारोह में वह ड्रैस कोड लागू नहीं होता। न ही कोई ऐसी ड्रैस अमल में लाई जाती जो किंचित रूप में उस विश्वविद्यालय या उस क्षेत्र की गौरव गरिमा के बारे में अपना पक्ष रखती हो। न ही किसी राज्य अथवा क्षेत्र के पहनावे को इस अवसर पर सरकारी तौर पर मान्यता प्राप्त है। यद्यपि विश्वविद्यालयों में किसी भी तरह के ड्रैस कोड को लेेकर अक्सर बहसें रहती हैं गत वर्षों में हमारे विश्वविद्यालय समेत भारत के कई अन्य विश्वविद्यालयों तथा संस्थानों में जब भी छात्र-छात्राओं को लेकर किसी डेस की लागू करने की बात आरंभ हुई तो हर बार उसका विरोध हुआ, परंतु प्रायः आज तक इस पहनावे को लेकर छात्रों तथा छात्र संघों की ओर से भी कोई विरोध सुगबुगाहट नहीं दिखाई दी।
                 विद्यार्थी जीवन से लेकर अब तक इस पहनावे को लेकर एक विचित्र आकर्षण-विकर्षण महसूस करते रहने के बाद आज इस बहस को देखकर लगता है कि ऐसा और भी कई लोग अनुभव कर रहे थे। एक केन्द्रीय मन्त्री और एक विश्वविद्यालय द्वारा इस क्षेत्र में पहल की गई तो मुझे प्रतीत हुआ कि यह वास्तव में यह मेरे मन की बात हो रही है। मैं यह समझता हूँ कि शिक्षण संस्थानों को इस सन्दर्भ में नए सिरे से सोचना चाहिए कि अन्ततः इस परम्परागत गैर भारतीय ड्रैस कोड को जो किंचित ईसाई धर्मावलम्बियों के ड्रैस कोड के नजदीक है को षैक्षणिक संस्थाओं के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्यक्रम में चलाए रखने की क्या आवश्यकता है? इस ड्रैस कोड के नाते न केवल आयोजन महंगा बैठता है अपितु एक विचित्र सी भंगिमा वैचारिक लोगों में चलती रहती है कि ड्रैस कोड इस रूप में क्यों?
                    किसी भी औपचारिक आयोजन में औपचारिक ड्रैस कोड की महती भूमिका हो सकती है परन्तु उस औपचारिकता में कितनी सहजता, सरलता और आत्मीयता है इसका भी परीक्षण करना आवश्यक है। परम्परा पोषण के नाम पर जिस ड्रैस को हम सालोंसाल निभाते आए है वह ड्रैस किंचित भी अपने पारिवारिक, सामाजिक या भारतीय समाज को परिलक्षित करने वाली नहीं दिखाई देती है।
               यद्यपि गाउन को लेकर बहस होने के बाद नई टिप्पणियां भी आरम्भ हो गई है। पारम्परिक गाउन और हुड के विरोध के बाद विलासपुर के गुरू घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अपै्रल माह में अपने दीक्षान्त समारोह में इस पारम्परिक पहनावे की बजाय छत्तीसगढ़ी लिबास खुमरी व कुर्ता पायजामा पहनाने का निर्णय लिया है। युवकों के लिए टोपी कुर्ता पायजामा तथा युवतियों के लिए इस ड्रैस के लिए साड़ी निर्धारित की गई। इस विश्वविद्यालय के कुलपति के अखबारों में प्रकाशित बयानों के अनुसार उन्होंने दीक्षान्त समारोह में भारतीय एवं क्षेत्रीय संस्कृति की झलक होने की बात कही है और गाउन पहनने को  अंग्रेजों की परम्परा से जोड़ा है। यद्यपि केन्द्रीय मन्त्री जयराम रमेश के द्वारा ड्रैस के विरोध को ईसाई समुदाय के लोगों ने किसी खास पक्ष या विपक्ष के रूप में नहीं लिया तथापि ईसाई समुदाय के संरक्षक के तौर पर किसी एक संस्था के व्यक्ति द्वारा ड्रैस के अपमान की बात भी प्रकाश में आई है।
               विश्वविद्यालयों में वैचारिक खुलापन और एक तार्किक क्षमता सम्पन्न विद्यार्थियों की बात की जाती है और भारतीय विश्वविद्यालयों में बहस मुबाहिमा कई मुद्दों पर अक्सर होता रहा है, परन्तु यह एक ऐसा फैसला था जिसका विरोध लगातार पहनावे के बावजूद नहीं हुआ। देश के प्रतिभा सम्पन्न विश्वविद्यालयों में भी इस पहनावे को लेकर कोई आपत्ति नहीं सुनाई दी। केन्द्रीय पर्यावरण मन्त्री जयराम रमेश द्वारा भोपाल में इस ड्रैस पर जो विरोध प्रकट किया गया वह इस बार चिन्गारी का काम कर गया।
                  ऐसा प्रतीत होता है कि विश्वविद्यालयों में पारम्परिक अवधारणाओं के लिए पर्याप्त जगह होती है फिर चाहे वह पाठ्यक्रमों के निर्धारण की बात हो या फिर अन्य कई मुद्दे जिनमें विश्वविद्यालयों के संचालन सम्बन्धी विविध परम्पराएं भी है। सामान्यतया विरोध करने के राजनैतिक कारण तुरन्त खोज लिए जाते है परन्तु इस बार अभी तक ऐसी सुगबुगाहट नहीं दिखाई दे रही है कि इसको किसी पार्टी या किसी नेता का बयान कहकर टाला जा रहा हो। ऐसा प्रतीत होता है कि यह सुगबुगाहट कई लोगों के मन के भीतर पहले से थी कि हम इस परम्परागत ड्रैस को क्यों पहनते हैं? एक प्रारम्भिक शुरूआत हो भी गई है और एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय से इसकी शुरूआत होने के अपने तर्क है परन्तु अगर आजादी के 63 वर्ष बाद भी हम अपने विश्वविद्यालयों में उपाधि प्रदान करने की औपचारिकताओं में पहनावे को भी अपनी तरह से निर्धारित नहीं कर पाए तो यह मानसिक गुलामी जैसा ही है। अतः यह प्रतिरोध इसी रूप में इसलिए भी कारगर लगता है कि भले ही औपचारिकता का ही समय हो ऐसे अवसर पर भी हम अपनी जड़ों की तलाश सही तरह से कर सकते हैं और देर से ही सही ऐसी मुहिम जब भी कहीं से शुरू होगी उसका स्वागत करने वाले बहुत सारे लोग इस समाज में मौजूद है।
                विश्वविद्यालयों में छात्र-छात्राओं के ड्रैस कोड की तरह इस परम्परागत पहनावे के बदलाव की शुरूआत मध्य प्रदेश से हो रही है और उसकी शुरूआत एक कांग्रेसी मन्त्री से प्रारम्भ हुई है। समर्थन में मुरली मनोहर जोशी का आना भी एक शुभ संकेत है कि राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय प्रश्नों को लेकर किंचित दलों में वैचारिक साम्य रखने वाले लोग भी है। इस विरोध का सबसे प्रभावी पक्ष यह है कि इसका स्वागत भले ही जोर शोर से न हो रहा हो परन्तु इसके विरोध की सुगबुगाहट कहीं से नहीं है। अतः यह समझा जा सकता है कि देर से ही सही एक उचित सम्भावनापूर्ण शुरूआत हो चुकी है और उसकी सीमाओं का विस्तार समय के साथ होता रहेगा।

नवीन चन्द्र लोहनी